27 दिस॰ 2011

नववर्ष मंगलमय हो !


नव वर्ष की 
नूतन सुबह का 
नव्य सूरज 
अपनी रेशमी किरणों के
सतरंगी आँचल में
बांधकर लाए
ढेर सारी खुशियाँ ,
उमंग और प्यार ...

...और बिखेर जाए
आप सबके जीवन में
ताकि आप सपरिवार
स्वस्थ एवं सकुशल रहकर
आनंद से सराबोर रहें
आजीवन !

17 दिस॰ 2011

अंग्रेजी के क्रिटिसिज्म के जिस अर्थ बोध के रूप में हम इसे प्रयोग करते हैं उस अर्थ में आलोचना शब्द बहुत व्यापक है जबकि क्रिटिसिज्म सीमित है। : ~ डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी (साक्षात्कार -4)

प्रेमनंदन
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी
फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना कर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर  इस लंबी पर गंभीर बातचीत को यहाँ पर क्रमशः प्रस्तुत किया जाएगा। प्रस्तुत है इस कड़ी का चतुर्थ और अंतिम  हिस्सा ...


प्रेम नंदन-  डॉ0 साहब, फतेहपुर में शोध का इतिहास आप कब से मानते हैं और उसकी वर्तमान स्थिति क्या है?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- शोध शब्द को शिक्षा जगत के जिस अर्थ-संकोच, अर्थ में ग्रहण किया जाता है वह एक प्रकार की उच्च शिक्षा का विषयवार संदर्भ है। हिन्दी, विश्वविद्यालय स्तर पर सर्वप्रथम बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उच्च कक्षाओं में पढ़ाई जाने लगी और उसी के समानान्तर या समरूप सन्दर्भ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी इसका पठन-पाठन होने लगा। यह कार्य बीसवीं सदी के तीसरे दशक से प्रारम्भ हुआ। हिन्दी साहित्य का प्रथम शोध कार्य बनारस विश्वविद्यालय से ‘‘निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोयट्री’’ शीर्षक पर पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम शोध प्रबन्ध रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने अलंकार शास्त्र पर ‘‘इवोल्यूसन ऑफ हिन्दी पोयटिक्स (हिन्दी के काव्य शास्त्र का विकास) शीर्षक से हिन्दी जगत का दूसरा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पहला और फतेहपुर जनपद के साहित्यकारों में पहला शोध प्रबन्ध था।

प्रारम्भ में हिन्दी के ही नहीं, समस्त भाषाओं और सभी विषयों के शोध प्रबन्ध अंग्रेजी भाषा में ही लिखे जाते थे। इस प्रकार फतेहपुर जनपद में शोध का इतिहास ‘‘इवोल्यूसन ऑफ हिन्दी पोयटिक्स’’ से माना जाना चाहिए। पहले यह शोध कार्य उपाधि के रूप में ही किये गये। धीरे-धीरे शोध कार्य विश्वविद्यालय की अकादमिक उन्नति का एक आधार बन गया और सभी विश्वविद्यालयों में अपनी क्षमता अनुसार शोध कार्य कराना प्रारम्भ हुआ। 

शोध कार्य, आगे चलकर विश्वविद्यालयीय प्रोत्साहन के कारण भी प्रारम्भ हुआ। शोधकर्ता को उपाधि मिलने पर यदि वह इच्छुक है तो उसे दो अतिरिक्त वेतन वृद्धियाँ मिलती थीं और विश्वविद्यालय शोध प्रबन्ध के प्रकाशनार्थ अनुदान भी देता था। आगे चलकर इस कार्य को उच्च शिक्षा के मानक से जोड़ दिया गया और शोधकर्ताओं को नौकरी मिलने में कुछ वरीयता दी जाने लगी। आज की स्थिति में वह एक अनिवार्य उपाधि है और उसकी समकक्षता में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया गया है। धीरे-धीरे इस उपाधि को लोभ-लालच में शोध कार्य का स्तर और उसकी व्यवस्था इतनी गिर गई है कि शोधकर्ता और शोध प्रबन्ध के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध न के बराबर रह गये हैं और शोध कराना पूरी तरह से व्यवसायिक हो गया है। इस शोध कार्य के लिए विषय चयन प्राचीन से प्राचीनतम ग्रहण किया जाने लगा और नवीन से नवीनतम सन्दर्भ में छोटे आकार के शोध प्रबन्ध भी निकलने लगे। शोध कार्य का निर्देशक उस विषय का अधिकारी विद्वान होना अनिवार्य नहीं रह गया। वह केवल ऊपरी आवरण व तकनीक तक सीमित रह गया और शोधकर्ता धन के आधार पर उपाधियाँ अर्जित करने लगे।


प्रेम नंदन- क्या कारण है कि रचनाकार अपनी ऊपर हो रहे शोध कार्य से या तो उदासीन हैं या फिर शंकाग्रस्त? शोधार्थी के श्रम एवं मूल्यांकन को स्वीकार करने में हिचकिचाहट क्यों होती है?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- इस विषय में विश्वविद्यालय स्तर पर या शोध संस्थानों में दो प्रकार के कार्यक्रम हैं। कुछ विश्वविद्यालय ऐसे हैं जो जीवित रचनाकार एवं उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लेकर शोध कार्य की अनुमति नहीं देते और कुछ विश्वविद्यालयों में इस विषय में छूट है। कोई भी रचनाकार यदि वह निर्वैयक्तिक रचनाकार है तो उसका रचनाशील बने रहना ही उसकी संतुष्टि का ध्येय है वह इस प्रपंच में नहीं पड़ता है कि उस पर कितने लोग कितनी तरह से कितनी विधाओं में क्या कर रह हैं? इसलिए वह अपने रचनाकर्म के प्रति जितना सतर्क, सावधान और समर्पित रहता है उतना वह शोधार्थियों के प्रवंचनापूर्ण प्रकरण से न केवल उदासीन रहता है बल्कि इसे उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। रचनाकार की शोधार्थी के प्रति यह दृष्टि आत्म प्रचार और आत्म श्लाघा के साधन के रूप में लेना होता है तो दोनों ही एक दूसरे का विनाश करने वाले हैं और यदि शोधार्थी द्वारा किया गया मूल्यांकन तटस्थ है तो रचनाकार से बहुत अधिक सम्पर्कवान होना आवश्यक नहीं है। उसकी कृतियाँ ही शोधार्थी की मार्ग निर्देशक हैं।

शोधार्थी के श्रम का अस्वीकार इसलिए होता है कि वह एक दुकान से खरीद-फरोख्त जैसी करना चाहता है। मान लीजिए एक ऐसा रचनाकार जिस पर आप शोध कर रहे हैं वह जीवित है और उसने अपने जीवन के 30, 40, 50 वर्ष साहित्य सेवा में लगाये हैं शोधार्थी दो-तीन साक्षात्कारों में उसकी समस्त पूंजी को संकलित करके उससे बड़ा रचनाकार बन जाना चाहता है। इस सम्बन्ध में प्रकाशित कृतियाँ, उनका कार्यकाल, उन रचनाओं की प्रेरक भूमियाँ सब अलग-अलग होती हैं। वे कुछ उपलब्ध होती हैं कुछ अनुपलब्ध होती हैं। शोधार्थी के प्रति उदासीनता का मुख्य कारण उसके परिश्रम में समर्पण का आभाव होता है।


प्रेम नंदन-  कृपया समीक्षा और आलोचना में अन्तर स्पष्ट करने की कृपा करें और यह भी बतायें कि इस विधा का क्या महत्व है? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-  काव्य शास्त्र या आलोचना जगत में ये दोनो शब्द लगभग पर्यायवाची हो गये हैं लेकिन मूलतः यह पर्यायवाची होते हुए भी उनके प्रभाव और व्युत्पत्ति में काफी अन्तर है। आलोचना शब्द का प्रयोग होते-होते इतना अर्थ संकोच हो गया है कि वह व्यवहार में मात्र निन्दावाचक शब्द माना जाता है और इस शब्द का सबसे अधिक अवमूल्यन राजपुरुषों ने एक दूसरे की नीतियों, सिद्धान्तों को नीचा दिखाने के लिए किया। साहित्य जगत का यह शब्द राजनीति में गया और वहाँ जाकर विकृत हो गया।

वस्तुतः अंग्रेजी के क्रिटिसिज्म के जिस अर्थ बोध के रूप में हम इसे प्रयोग करते हैं उस अर्थ में आलोचना शब्द बहुत व्यापक है जबकि क्रिटिसिज्म सीमित है। किसी विषय को सम्यक रूप से उसके दृष्टिकोण से आगे उसके परिवेशगत सन्दर्भ से जानना, पहचानना, देखना और फिर प्रस्तुत करना आलोचना का कार्य है। सामाजिक दशा में  काव्य शास्त्र के मूल्यों को लोक कल्याणकारी मूल्यों से देखना ही एक सफल आलोचक का काम होता है न कि किसी घोड़े की तरह अपनी पीठ से मक्खियाँ उड़ाना। अंग्रेजी साहित्य में आलोचकों की इतनी निन्दा की गयी है कि उन्हें भूसे के ढेर से छांटे हुए गेंहूँ का पुरस्कार दिया गया है। जबकि भारतीय साहित्य में उसे ऋषि तुल्य माना गया है और उसे आंगन में रहने की स्वीकृति प्रदान की गई है।

समीक्षा, आलोचना का पारिवारिक शब्द है। व्याख्यात्मक और शास्त्रीय आलोचना के अन्तर्गत किसी रचनाकार की उपलब्धियों की सराहना उसके दृष्टिकोण को पहचानना और आलोचक और रचनाकार को साधारणीकरण के स्तर पर एक पंक्ति में ले आना ही समीक्षक का दायित्व होता है। समीक्षक उतना विस्तारवान नहीं होता जितना कि आलोचक। साहित्य के लिए समीक्षा और आलोचना का वैसा ही महत्व है जैसा पेड़ लगाना और उसके फलों का अस्वादन करना और किसी रचनाकार के किसी काल में उसके बाद में एक लम्बी दीर्घावधि के लिए स्थापित करना इसी शास्त्र के द्वारा सम्भव है।


प्रेम नंदन-  जनपद में समीक्षा की एक समृद्ध परम्परा रही है, इसी वर्तमान स्थिति क्या है? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-  फतेहपुर जनपद में समीक्षा की जो साहित्यिक परम्परा मिलती है उसमें आपके द्वारा यह माना जाना कि वह समृद्ध रही है मैं भी अपनी स्वीकृति देता हूँ। यह हमारे संशाधनों और साहित्य के प्रति हमारी उपेक्षाओं का परिणाम है कि हम इस भूखण्ड का जिसे आप फतेहपुर कहने लगे हैं बहुत दूर तक अतीत खोज नहीं पाये हैं। हम लोग अधिकतम सोलहवीं शताब्दी तक जा पाते हैं। उसके पहले का जो साहित्य है उसे हम क्रमबद्ध करके प्रकाश में नहीं ला पाये हैं। 

काव्य शास्त्र के आचार्यों  में इस जनपद के नामों में पहला नाम करनेस बन्दीजन का मिलता है यह अकबर (1556-1605) के दरबारी साहित्यकार थे और इनके द्वारा लिखे गये तीन अलंकार ग्रन्थ प्राप्त होते हैं-कर्णाभरण, श्रुति भूषण और भूप भूषण। ये ग्रन्थ शिव सिंह के पास होने का अनुमान होता है क्योंकि उन्होंने सरोज-सर्वेक्षण में इनका उल्लेख किया है। कृपाराम और चिन्तामणि का नाम कार्यकाल के अनुसार करनेस बन्दीजन के बाद आता है। ऐसा लगता है कि शीर्षकों के माध्यम से अलंकार, नायक-नायिका भेद और संस्कृत के जयदेव तथा कुबलयानन्द के ग्रन्थों का प्रभाव उन पर पड़ा है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि जिस भक्तिकाल और रीतिकाल के बीच में करनेस बन्दीजन का नाम आता है और अकबरी दरबार के कवियों में गणना होती है वह मात्र संस्कृत ग्रन्थों की अनुवादित उद्धरणी नहीं रहा होगा क्योंकि भूप भूषण कृति का नाम इस बात का संकेत करता है कि यह पारम्परिक अलंकारवादी ग्रन्थों से अलग हटकर होना चाहिए। 

लगभग 300 वर्षों तक काव्य शास्त्रों का कई प्रकार का काम होता रहा संस्कृत ग्रन्थों के अनुसार भाषा छन्दों का निर्माण, अलंकार ग्रन्थ, नायक-नायिका भेद, टीकाकरण, ऋतु वर्णन, रस वर्णन। एक दो आचार्यों ने व्यंजना व्यापार से जुड़कर व्याकरण के ग्रन्थों की भी रचना की और अगर फतेहपुर जनपद की धरती से जुड़े हुए इन 300 वर्षों के साहित्यकारों को अलग करके रखा जाये तो किसी भी प्रान्त में इतने आचार्य एक साथ इस अवधि में नहीं मिलेंगे। ये साहित्यकार ज्यादातर असनी, असोथर, हसवा, एकडला, खजुहा आदि स्थानों के रहे हैं।

सन् 1850 में इस धारा में कुछ परिवर्तन आना प्रारम्भ हुआ और यह परिवर्तन केवल फतेहपुर के साहित्यकारों में नहीं था बल्कि एक वर्ण्य विषय में ही परिवर्तन हो रहा था। इन लोगों में तीन प्रमुख लोगों के नाम मैं लेना चाहूँगा- पुरन्दर राम त्रिपाठी, सेवक बन्दीजन और लाला भगवानदीन ‘दीन’।
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी

फतेहपुर जनपद ही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी आलोचना जगत के रीतिबद्ध परम्परा को आधुनिक परिस्थितियों से जोड़ने का काम लाला जी ने ही किया। देश प्रेम और वीररस को उस युग में प्रमुख स्थान देकर लाला जी भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों के रथवाहक हुये। उन्होंने हिन्दी के भक्तिकालीन और रीतिकालीन कवियों पर टीका साहित्य लिखकर इतना बड़ा काम किया जो उस समय कोई भी साहित्यकार नहीं कर सका। पाठकों के सिर पर चढ़ा केशव का प्रेत झाड़ने का मन्त्र लाला जी ने ही दिया। देव और बिहारी के मल्ल युद्ध में लाला जी ने भी अपने खम ठोंके। हिन्दी शब्द सागर के निर्माण में लाला जी ने बहुत योगदान दिया और उस समय के राष्ट्रीय आन्दोलन से लाला जी आजीवन जुड़े रहे।

लाला जी के बाद फतेहपुर से एक बहुत ही कीर्तिवन्त नाम उभरकर सामने आया वह है- राजबहादुर लमगोड़ा का। इन्होंने रामचरित मानस को विश्व की सर्वश्रेष्ठ कृति सिद्ध किया और उस समय उन अंग्रेज विद्वानों के सामने जो शेक्सपियर को ही सर्वश्रेष्ठ मान रहे थे उनकी मान्यता को खण्डित किया। लमगोड़ा अंग्रेजी साहित्य के उस समय के स्वर्णपदक विजेता थे व प्रारम्भ में अंग्रेजी का अध्यापन कर चुके थे और फतेहपुर में राजस्व के प्रतिष्ठित अधिवक्ता थे। उन्होंने एक किताब लिखी थी जो प्रशासनिक कार्यों की बड़ी मद्दगार थी। उन लमगोड़ा जी को ऐसा राम रस लगा कि वह अध्यापकी वकालत सभी कुछ छोड़कर राममय हो गये। उन्होंने रामचरित मानस में श्रंगार, हास्य, करुण रस के तीन खण्ड लिखे और विश्व साहित्य में रामचरित मानस नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा जिसे नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने प्रकाशित किया। 

बड़े खेद का विषय है कि लमगोड़ा जी का नाम शुक्ल जी के हिन्दी साहित्य के इतिहास में नहीं है। जबकि महावीर प्रसाद द्विवेदी के कई प्रशंसा पत्र लमगोड़ा जी की विवरिणका में प्राप्त हैं। लमगोड़ा जी के बाद आलोचना साहित्य को डॉ0 रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ जी ने समृद्ध किया। इन्होंने रत्नाकर के ‘उद्धव शतक’, हरिऔध के ‘प्रिय प्रवास’ की महत्वपूर्ण भूमिकायें लिखीं। ये ब्रजभाषा के प्रशंसक और उसका सर्वोच्च स्थान मानने वाले आचार्य थे। इन्होंने रत्नाकर की तर्ज पर उद्धव ब्रजांगना नामक एक बड़ा काव्य लिखा। आलोचना शास्त्र का इन्होंने काव्य पुरुष शीर्षक से एक शास्त्र लिखा। इन्होंने भी हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा। इनका शोध प्रबन्ध ‘अलंकार पियूष’ दो भागों में प्रकाशित हुआ है। 

इस कड़ी में आगे चलकर डॉ0 विपिन बिहारी त्रिवेदी ने ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसे विवादित ग्रन्थ पर कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपना शोध प्रबन्ध लिखा। फिर यह आलोचना और शोध कार्य की प्रक्रिया निरन्तर बढ़ती रही और यहाँ के आचार्य और विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में अपनी जिज्ञासा समाधान के लिए कार्यशील बने रहे।


प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, आप हिन्दी जगत के मूर्धन्य आलोचक हैं। कृपया अपने योगदान एवं वैशिष्ट्य को रेखांकित करें?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-  इस प्रश्न का उत्तर मुझे न देना चाहिए क्योंकि वह कुटिल और भोंडी आत्म प्रशंसा होगी। सरस्वती के विग्रह पर कर्म के यथाशक्ति दो पुष्प चढ़ाता रहा हूँ। यही मेरा साहित्यिक योगदान है। जितने विशेषण लगाकर लोग सम्बोधित करते हैं वह सरस्वती के भण्डार के शब्दों का दुरुपयोग करते हैं और मेरा उपयोग करते हैं।


प्रेम नंदन- क्या कारण है कि शोध के नाम पर लोग श्रम करने से कतरा रहे हैं और चर्वित-चर्वण तथा पिष्ट-पेषण से संतुष्ट हुये जा रहे हैं? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी-  इसका व्यावहारिक पक्ष बहुत ही अश्लील और दूषित है। शोध कराने वाले निदेशक शोधार्थी से अधिकतम धन संग्रह कर लेना चाहता है और शोधार्थी रूपये के बल पर शोध कार्य की बेगार से बचना चाहता है। समाज की इस नई रचना से विश्वविद्यालय स्तर का प्राथमिक पंजीकरण करने वाले क्लर्क से लेकर उपाधि देने वाले तक इस लम्बी जंजीर में बहुत खोट है और चूँकि मैं जिस समय का शोधार्थी हूँ उस समय की व्यवस्था और प्रक्रिया अब पूरी तरह बदल चुकी है। इसलिए विश्वविद्यालय भी ऐसे लोगों से दूरी बनाते हैं जो कुछ सार्थक और अच्छा कार्य करना चाहते हैं। आज विश्वविद्यालीय वातावरण पूरी तरह से घृणित है।


प्रेम नंदन- प्रकाशन की वर्तमान स्थिति में आप शोध ग्रन्थों एवं शोध पत्रों का क्या भविष्य देखते हैं? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- शोध कार्य और प्रकाशन यह दो विभिन्न स्तरों के सामाजिक वर्गों का संगठन है। प्रकाशक पूरी तरह व्यवसायी है और शोध का प्रकाशन चाहने वाला अपने कृतित्व का प्रकाशन चाहता है। आज के संदर्भ में स्थितियाँ पूरी तरह से बदली हुई हैं। बड़े-बड़े आलीशान भवनों में छात्र शून्य विश्वविद्यालय चल रहे हैं और औजीदार अध्यापक पढ़ा रहे हैं। 

सरकार शिक्षा विभाग पर यूनेस्को की मदद से इतना रूपया बाँट रही है कि अगर वह प्रकाशन में लगा दिया जाय तो शोध ग्रन्थों एवं शोध पत्रों की कमी पड़ जायेगी। सरकार अनुसंधान करने के लिए दो-तीन वर्ष का अवकाश देती है। ज्ञानात्मक ऊर्जा को बनाये रखने के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन करती है। प्रकाशन के लिए पूँजी देती है और अच्छा ईर्ष्याप्रद वेतनमान देती है लेकिन बौद्धिक वर्ग तथाकथित अध्यापक वर्ग मकान, गाड़ी और फैशन के चक्कर में इतना तल्लीन है कि दो-तीन घण्टे में सौ कापियां जांच कर अपनी विद्वता झाड़ता है और विद्यार्थियों के साथ अन्याय करता है। इधर 20-25 वर्षों से किसी अध्यापक के द्वारा लिखी गयी कोई कृति लोक चर्चा में आयी हो ऐसी जानकारी मुझे नहीं है। जब शिक्षा विभाग में धन नहीं था तो ज्ञान भरपूर था लेकिन आज जब धन है तो ज्ञान का लोप हो गया है।

समाप्त!

14 दिस॰ 2011

चूँकि कथा लेखन श्रमसाध्य विधा है और कवि प्रायः श्रमभीरू होते हैं : ~ डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी ( साक्षात्कार -3 )


प्रेमनंदन
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी
फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना कर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर  इस लंबी पर गंभीर बातचीत को यहाँ पर क्रमशः प्रस्तुत किया जाएगा। प्रस्तुत है इस कड़ी का तृतीय  हिस्सा ...


प्रेम नंदन-  डॉ0 साहब, कहानी, नई कहानी और अकहानी में मूलभूत क्या अन्तर है? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- कहानी, नई कहान और अकहानी साहित्य जगत के इन पारिभाषिक कुनबों में वैसा ही अन्तर है जैसा पारम्परिक समाज, परम्पराओं से विघटित होता हुआ समाज और आज का समाज। मूलतः कहानी कथा शबद की आधुनिकता का स्थानापन्न रूप है, जिसका विकास लगभग सन् 1900 के आस-पास माना जाता है। इस समय प्रेम सागर, नासिकेतोपाख्यान, इंशा अल्ला की रानी केतकी की कहानी आदि रचनाओं ने अपने को प्रारम्भिक कहानी के रूप में स्थापित किया। यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक धार्मिक आख्यानों, उर्दू की किस्सा गोई और संस्कृत के नाटकों की कथा-वस्तु को सम्मिलित रूप से कहानी के रूप में प्रस्तुत की जाती रही। यह कहानी मूल रूप में इतिवृत्तात्मक रही।

लेकिन सन् 1930 के आस-पास से कहानी इतिवृत्तात्मकता के साथ-साथ देश-काल के समस्या मूलक विषयों को भी जोड़ने लगी जो उस समय देश की आवश्यकता थी, यथा बाल-विवाह, देशद्रोह, अशिक्षा जैसी बुराईयों का खण्डन और नारी-शिक्षा, देश प्रेम, सम्बन्धों का निर्वाह, संयुक्त परिवार की अवधारणा का मण्डन करती रही। मोटे तौर पर विषय वस्तु और शैली को लेकर परिवर्तन होते रहे लेकिन संयुक्त परिवार की अवधारणा ने 1947 तक कहानी को कहानी ही बने रहने दिया। ज्यों-ज्यों संयुक्त परिवार की अवधारणा खण्डित होने लगी और गाँव तथा शहर एक दूसरे से सम्पर्क में आने शुरु हुए, इन नई परिस्थितियों को उद्घाटित करने के लिए नई कहानी का जन्म हुआ। इसके बाद शहरीकरण के जितने दूषित, कुरूप, असामाजिक मूल्य थे वे सब अकहानी के विषय वस्तु बन गये। जिसके कारण अकहानी पर अश्लीलता जैसे दाग भी देखे गये।


प्रेम नंदन- कहानियों से गाँव गायब होते जा रहे हैं और पंचसितारा संस्कृति के अनुरूप लिखी कहानियाँ आम आदमी से दूर होती जा रही हैं, ऐसे में किस्सार्गो और प्रेमचंद जैसे कहानीकारों की परम्परा की क्या प्रासंगिकता रह गई है?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- कहानी लेखन में पंचसितारा संस्कृति के हाबी होने में शहरों में उपलब्ध शिक्षा, व्यवसाय और प्रकाशन तीनों का बड़ा हाथ हैं। शहरी जीवन में ये तीनों लेखकों को आसानी से प्राप्त हो जाने के कारण ही साहित्य में शहरीकरण हावी होता गया और शहरीकरण बढ़ते-बढ़ते पंचसितारा संस्कृति तक पहुँच गया। ग्रामीण क्षेत्र से गये साहित्यकार भी अपने को ग्रामीण संस्कृति का जानकार मानने में आत्महीनता का अनुभव करने लगे। ग्राम्य संस्कृति को पहचानना बाबूपन के लिए बहुत भारी धब्बा हो गया। नगरों एवं महानगरों की सितारा संस्कृति में न केवल ग्रामीण जीवन बल्कि मनुष्य की ही पहचान खत्म हो गयीं इसीलिए कथा साहित्य में ग्राम्यांचल को लेकर पहचान बनाने वाले लेखक नहीं रहे और जो कुछ लिखा भी जा रहा है उसमें बनावटीपन की गंध है।
डा० ओमप्रकाश अवस्थी का साक्षात्कार लेते युवा रचनाकार भाई प्रेमनंदन

चूँकि हिन्दी का औसत पाठक और लेखक इस अति उच्च वर्ग का नहीं है जो अपने को उस पंचसितारा संस्कृति से जोड़ सके, इसलिए आज की पंचसितारा कहानियों एवं पाठक एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। रही बात प्रेमचंद के ग्रामीण जीवन की प्रासंगिकता की तो वह दो कारणों से बनी रहेगी। पहला तो यह कि कथा साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति का आंकलन करने के लिए ग्राम्यांचल की कहानियाँ ही दिग्दर्शक बनेंगी और दूसरा यह कि जिन आधारों और मूल्यों को उन्होंने अपने कथा साहित्य का आधार बनाया है वे आधार आगे किस प्रकार विकसित हुए, इसकी पहचान करायेंगे। जैसे झिंगुरी शाह से दस रुपये उधार लेकर उनकी अदायगी करने वाला होरी और आज के बैंकों में अपनी जमीन गिरवी रखकर ऋण लेने वाला किसान।


प्रेम नंदन- जनपद में कथा साहित्य के इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डालते हुए वर्तमान परिदृश्य को स्पष्ट करने की कृपा करें।

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- फतेहपुर जनपद में कथा साहित्य का सूत्रपात धार्मिक ग्रन्थों की टीकायें लिखने और ग्रामीण आंचलों में, परिवारों में, धार्मिक, उपदेशात्मक लोक कथायें कहने से हुआ। अधिकांशतः पौराणिक कथाओं को लोक भाषा में बदलने का काम यहाँ के साहित्यकारों ने किया। साहित्यिक मानदण्ड से जुड़े हुए कथाकार के रूप में सबसे पहला नाम लाला भगवानदीन ‘दीन’ का आता है। लाला जी ने लक्ष्मी पत्रिका के सम्पादन के माध्यम से छोटी-छोटी उपदेशात्मक एवं समाजोपयोगी तथा देश प्रेम से जुड़ी कहानियाँ लिखीं। उन्होंने एक छोटा सा उपन्यास भी लिखा। उनकी पत्नी बुन्देला बाला भी कहानियाँ लिखती थीं। कथा साहित्य का यह दौर आगे बढ़ा और राज बहादुर लमगोड़ा ने 1857 के समय के कथानकों को लेकर कुछ कहानियाँ लिखीं। उन्होंने रामकथा को छोटे-छोटे टुकड़ों में कहानीबद्ध करके लिखा। 

इस युग में रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, इकबाल बहादुर वर्मा, महावीरप्रसाद राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, रामप्रसाद विद्यार्थी (रावी), जीवन शुक्ल, जीवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव (जीवन दद्दा), प्रयाग शुक्ल आदि साहित्यकार कहानी लिखते रहे। वर्तमान में श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी, महेन्द्रनाथ बाजपेयी, जयप्रकाश त्रिवेदी, डॉ0 बालकृष्ण पाण्डेय, शैलेष गुप्त, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव जैसे अनेक साहित्यकार कथा-साहित्य में अपना योगदान कर रहे हैं।


प्रेम नंदन- क्या कारण है कि जनपद में कविता के बरक्स गद्य लेखन नगण्य प्राय है? इक्के-दुक्के कहानीकार व उपन्यासकार दिखते हैं ऐसी स्थिति में इस विद्या का आप क्या भविष्य देखते हैं?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- जनपद में स्थापित कवियों, कवि सम्मेलनीय कवियों और उत्साह से प्रेरित होकर स्फुट कवितायें लिखने वालों की लम्बी सूची है लेकिन उसके अनुपात में कहानीकार दाल में नमक की तरह हैं। चूँकि कथा लेखन श्रमसाध्य विधा है और कवि प्रायः श्रमभीरू होते हैं, शायद इसलिए भी जनपद में कथा लेखन नगण्य प्राय है। दूसरा, यहाँ न तो कथा साहित्य के मंच बने और नहीं कथा साहित्य की गोष्ठियाँ सम्पादित हो सकीं, जिससे इस विधा का कुछ विकास हो सकता। यहाँ का जितना भी कथा साहित्य है वह शुद्ध रूप से पाठ्ष साहित्य रहा। इसके लेखन में जितनी तन्यमता और कई सम्बन्धों का संयोजन करने की आवश्यकता होती है वह साहित्यकारों से रम साध्य न हो सका। कथा साहित्य में जो जीवन की अन्तरंगता, सम्बन्धों के निर्वाह के साथ चलती है उतना क्रम करने वाले साहित्यकार कम हैं। एक और बहुत बड़ा कारण यह है कि कथा साहित्य के सामूहिक सम्मेलनों या कहानी लेखकों और कहानी स्रोताओं के संगठन नहीं बन सके। मुख्य रूप से कहानी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन तक सीमित रह गई और उसका सामान्य जन जीवन से सम्बन्ध न बनने के कारण कथा साहित्य का जनपद में समुचित विकास नहीं हो सका है।


प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, जनपद के कथाकारों एवं उपन्यासकारों के योगदान पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- इधर कुछ वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में छोटी कहानियाँ, लघुकथायें लगातार प्रकाशित हो रही हैं तो कुछ लम्बी कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं। जनपद के कथाकार यदि इसी गति से लिखते और प्रकाशित होते रहे तो इस विधा के समृद्ध होने की काफी सम्भावनायें हैं। इसको आगे बढ़ाने के लिए कहानी का वाचन, श्रवण और उस पर कुछ श्रोताओं की प्रतिक्रियायें बहुत कारगर सिद्ध हो सकती हैं।

....क्रमशः जारी!

11 दिस॰ 2011

एक नवगीतकार के लिए उत्तर आधुनिकता की मानसिकता का होना बहुत जरूरी है : डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी ( साक्षात्कार - 2 ) )

प्रेमनंदन
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी
फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना कर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर  इस लंबी पर गंभीर बातचीत को यहाँ पर क्रमशः प्रस्तुत किया जाएगा। प्रस्तुत है इस कड़ी का द्वितीय हिस्सा ...



प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, आप फतेहपुर जनपद में काव्य परम्परा का प्रारम्भ कहाँ से मानते हैं?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- नंदन जी, फतेहपुर सन् 1826 में बना और इतिहास लेखकों ने 1826 में जो क्षेत्र फतेहपुर में लिया गया उसमें पैदा हुए रचनाकारों को फतेहपुर का कवि मान लिया। इस समय जो साहित्य, फतेहपुर जिले के अन्तर्गत निरूपित किया गया उसमें अकबरी दरबार के कवियों से इसका प्रारम्भ होता है। असनी के कवियों ने आचार्य विश्वनाथ को, जो जलालउद्दीन के समय के संस्कृत के आचार्य थे, उनका सम्बन्ध फतेहपुर से जोड़ना चाहा परन्तु प्रमाणित नहीं कर सके। यों मान लो कि हिन्दी कवियों का अकबरी दरबार से पहले प्रमाण नहीं मिलता। उन कवियों में- करनेस, मानराय, और मुख्य रूप से नरहरि का नाम लिया जाता है। यद्यपि नरहरि पखरौली, जिला रायबरेली के रहने वाले थे परन्तु अकबर ने असनी और आस-पास के गाँव उन्हें प्रदान किये थे इसलिए वह फतेहपुर के कवियों में ही परिगणित किये जाते हैं।


प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, फतेहपुर के कवियों की दरबारी परम्परा कब तक चली और उसके बाद कविता का क्या स्वरूप बना?
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- फतेहपुर के कवियों की आप तीन कोटियाँ बना सकते हैं- पहली कोटि फतेहपुर की धरती के उन कवियों की है जो फतेहपुर से अन्यत्र जाकर दूसरे दरबारों में रहे। दूसरी कोटि उन कवियों की है जो बाहर से आकर फतेहपुर के छोटे रजवाड़ों में रहे और तीसरे कोटि में वे कवि आते हैं जो कहीं नहीं गए और वे फतेहपुर के अंचल में ही रहे। यही तीनों कोटियाँ अब तक किसी न किसी रूप में चली आ रही हैं और शायद आगे भी चलती रहेगी। दरबारी कविता की परम्परा सन् 1900 तक तो बड़ी मजबूती से चलती रही जिसके अन्तिम कवि, असनी के सेवक जो काशी नरेश के दरबारी थे और पुरंदरराम त्रिपाठी जो जयपुर में महाराज राम सिंह के सभा कवि थे। ज्यों ज्यों रजवाड़े टूटते रहे, कविता की विधाएँ बदलती गईं और साहित्यिक कर्म में राजदरबारी कवियों के प्रति सम्मान का भाव न रह गया। इसके बाद कविता का स्वरूप बदला और भारतीय नव जागरण और राष्ट्रीय जागरण से जुड़कर आगे बढ़ा। इस सम्बन्ध में सीमा रेखा बहुत स्पष्ट नहीं हैं क्योंकि राष्ट्रीय कविता का स्वरूप सन् 1860 के आस-पास आना शुरु हो गया था।


प्रेम नंदन-  राष्ट्रीय नव जागरण के प्रमुख कवि कौन-कौन थे और उनका क्या योगदान रहा? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- हिन्दी में फतेहपुर को राष्ट्रीय कविता से जोड़ने का कार्य लाला भगवानदीन ‘दीन’ ने किया। लाला जी रीतिकालीन आचार्य परम्परा के अच्छे ज्ञाता थे लेकिन वे विदेशी दासता से उतना ही खिन्न थे जितना कि उस समय का जनमानस और राष्ट्रीय राजनैतिक दल। उन्होंने अतीत के चरित्रों को लेकर देश प्रेम की ओजस्वी कविताएँ लिखीं। उनके साथ-साथ उनकी पत्नी, जो बुन्देला बाला के नाम से लिखती थीं; उन्होंने भी देशभक्ति की रचनायें लिखीं। राष्ट्रभक्ति की काव्यधारा में लिखने वालों में बाबू वंशगोपाल का अप्रतिम योगदान है। उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत ‘‘सत्याग्रह और असहयोग का आल्हा’’ लिखा लेकिन सरकारी प्रतिबन्धों के कारण वह जनता के बीच न आ पाया। मालवीय जी से गुरु भाव रखने वाले पण्डित सोहन लाल द्विवेदी जी ने भी राष्ट्रीय कवितायें लिखीं। इसके साथ-साथ हरिदत्त शर्मा ‘हरि’, रामस्वरूप अवस्थी, दुलारे सिंह ‘वीर’, मातादीन शुक्ल, जगमोहन नाथ अवस्थी, जगन्नाथ प्रसाद त्रिपाठी ‘पथिक’, छेदीलाल पाण्डेय ‘भण्डाफोड़’, रामशरण शुक्ल, गौरीशंकर अग्निहोत्री आदि ऐसे नाम हैं जो देशप्रेम, देशभक्ति और राष्ट्रीयता की रचनायें लिखते रहे इनमें बहुतों की रचनाओं का प्रकाशन बाद में हुआ और कुछ का नहीं भी हुआ। फतेहपुर की यह धारा वैसी ही मजबूत थी जैसे रीतिकालीन कवियों की धारा।


प्रेम नंदन- उस युग की अन्य कौन सी काव्य धारायें रहीं जिनमें फतेहपुर के कवियों ने रचनायें की? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- इस अवधि में कविता के समक्ष भाषा का विवाद भी बहुत प्रबल था। जिन आचार्यों ने कविता के लिए ब्रजभाषा को ही उपयुक्त समझा था और उसमें रचनायें भी लिखी, उनमें रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। रसाल जी ने एक ओर जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ के उद्धव शतक की भूमिका लिखी, उसी के साथ ठेठ हिन्दी का ठाठ वाले अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ‘हरिऔध’ के रसकलश की भी भूमिका लिखी और स्वयं ‘उद्धव शतक’ के नमूने का एक बड़ा काव्य ग्रन्थ - ‘‘उद्धव ब्रजांगना’’ के नाम से लिखा। दूसरी धारा जो तात्कालिक हिन्दी या द्विवेदी युगीन हिन्दी की अनुकरणशील थी, उसमें तरह-तरह की इतिवृत्तात्मक रचनायें भी लिखी गईं और जो हिन्दी का मानक गाँधी जी ने स्थापित किया था, उस हिन्दी में भी कविताएँ लिखी गईं जिनमें प्रमुख रचनाकार श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ तथा बाबू वंशगोपल आदि थे। इसके साथ ही छायावादी काव्य का प्रतिनिधित्व जीवन शुक्ल ने ‘बंशी तुम धरा दो’ तथा डॉ0 सुखनिधान सिंह ने अपनी पुस्तक ‘‘अर्न्तज्योति’ में किया। प्रगीत धारा का प्रतिनिधित्व रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ ने किया तथा प्रगतिवादी ढंग की रचनाओं का श्रीगणेश दीपनारायण सिंह, जीवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव उर्फ जीवन दद्दा ने किया। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार राजनैतिक, धार्मिक, भक्ति सम्बन्धी, प्रेम सम्बन्धी कविताएँ भी लोग लिखते रहे। इस काल के अन्य प्रबुद्ध कवि तारकेश्वर बाजपेयी, सत्यपाल ‘सत्य’, बद्रीप्रसाद गुप्त ‘आर्य’, रामबिहारीलाल श्रीवास्तव ‘आजम’ तथा समरजीत सिंह ‘जलाल’ आदि हैं।
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी


प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, जनपद में गीत धारा का विकास आप कहाँ से मानते हैं? यहाँ के प्रमुख गीतकारों एवं उनकी कृतियों पर प्रकाश डालने की कृपा करें। 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- फतेहपुर में गीत उतने  ही पुराने सन्दर्भ में जायेगा जितना कविता का सन्दर्भ। भक्त, साधु-सन्तों में किसी वाद्य यन्त्रों के साथ भजनानंदी गीत गाने की अभिरुचि थी। ये काव्य शास्त्रीय छन्दों को सस्वर पढ़ते थे। हसवा के स्वामी चन्द्रदास के अन्तरापद के साथ लिखे हुए गीत मिलते हैं। वर्तमान धारा में मातादीन शुक्ल उनके पुत्र रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ ने गीतात्मक कविताएँ लिखीं। अंचल तो प्रगीत धारा के प्रमुख हस्ताक्षर ही हैं। इसके अलावा रामशरण शुक्ल, जगमोहन नाथ अवस्थी, सोहनलाल द्विवेदी, जीवन शुक्ल, दुलारे सिंह ‘वीर’, सुरेन्द्रपाल सिंह, सत्यपाल ‘सत्य’ आदि कवियों के गीत कवि मंचों पर सुनने को मिलते थे। गीत को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने का श्रेय जनपद के पं0 रमानाथ अवस्थी को है।


प्रेम नंदन- वर्तमान समय में प्रमुख गीतकार कौन-कौन से हैं? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- प्रेम नंदन जी, वर्तमान समय में अनुसंधानकर्ता ने फतेहपुर के पाँच सौ से अधिक कवियों का नामोल्लेख किया है। यदि मैं यह मान लूँ कि इसमें आधे भी गीतकार होंगे तो नामों की संख्या से ही बहुत स्थान घिरेगा लेकिन कुछ नाम में आपको अवश्य बताऊँगा। सस्वर पढ़ने वाले और लिखने वालों में चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित ‘ललित’, धनंजय अवस्थी, देवदत्त आर्य ‘देवेन्द्र’, हरिप्रसाद शुक्ल ‘अकिंचन’, रहमत उल्ला नजमी, जानकी प्रसाद श्रीवास्तव ‘शाश्वत’, भइया जी अवस्थी ‘करुणाकर’, बृजमोहन पाण्डेय, चन्द्र कुमार पाण्डेय, रामलखन परिहार ‘प्रांजल’, शिवशरण सिंह चौहान ‘अंशुमाली’, रामसजीवन मिश्र, आनन्दस्वरूप श्रीवास्तव ‘अनुरागी’, रामेश्वर मौर्य, कृष्ण कुमार सविता, चन्द्रशेखर शुक्ल, विष्णु शुक्ल आदि जितने भी कवि हैं सभी लगभग 60वर्ष के आस-पास के हैं। नई पीढ़ी का नेतृत्व करने के लिए नये-नये हस्ताक्षर मंचों में आगे आ रहे हैं तथा उनके संकलन प्रकाशित हो रहे हैं। इनकी साहित्यिक अभिरुचि देखकर गीतधारा के प्रवाह में गति बनी रहने की आशा जगती हे। नई पीढ़ी के प्रमुख गीतकार, धर्मचन्द्र मिश्र कट्टर, समीर शुक्ल, अनिल तिवारी ‘निर्झर’, ज्ञानेन्द्र गौरव, शैलेष गुप्त ‘वीर’ प्रेम नंदन, प्रवीण श्रीवास्तव, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, रक्षपाल पासवान आदि हैं।


प्रेम नंदन- जनपद में गीतकारों  की समृद्ध परम्परा के बीच नवगीत एवं नवगीतों की क्या स्थिति हैं? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- नंदन जी, जनपद में नवगीत सशक्त ढंग से लिखे जा रहे हैं लेकिन नवगीतकारों की संख्या बहुत कम है। प्रायः लोग मंचों पर अपने मध्यकालीन गीतों को नवगीत कहकर प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः नवगीत, गीत का कथ्य और शिल्प के स्तर पर नया रूप है और छोटी अन्तरा, अभिव्यक्ति में कसावट भाव की अप्रस्तुत और प्रतीक के माध्यम से कहा कहना इसकी विशेषता है। साथ ही समाज के परिवर्तनों के समानान्तर रेखांकित करना इसका प्रमुख लक्षण है। एक नवगीतकार के लिए उत्तर आधुनिकता की मानसिकता का होना बहुत जरूरी है। नवगीत का वर्तमान, आधुनिक भावबोध से जो अन्योन्याश्रित रिश्ता है उसका निर्वाह जनपद के एक मात्र साहित्यकार श्री श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी ने किया है। उनके अलावा धनंजय अवस्थी ने भी नवगीत लिखें हैं। इनके साथ-साथ इस समय वेदप्रकाश मिश्र, शिवशरण बन्धु, ज्ञानेन्द्र गौरव आदि कई रचनाकार इस दिशा में निरन्तर प्रयत्नशील हैं और नवगीतों की रचना करके इसकी अभिवृद्धि कर रहे हैं।

........क्रमशः जारी है!

7 दिस॰ 2011

नई कविता : वैचारिक दबाव के कारण अभिव्यक्ति का गद्यात्मक रूप है ~ डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी (साक्षात्कार -1))

प्रेमनंदन
डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी
फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना कर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर  इस लंबी पर गंभीर बातचीत को यहाँ पर क्रमशः प्रस्तुत किया जाएगा। प्रस्तुत है इस कड़ी का प्रथम हिस्सा ...



प्रेम नंदन- डॉ0 साहब आपने नई कविता को गहराई से देखा और परखा है, कृपया बतायें कि नई कविता का जन्म कब और किन परिस्थितियों में हुआ?


डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- छायावादी कविता के अमृर्त विधान के प्रति, प्रतिक्रिया स्वरूप नई कविता का जन्म हुआ। जिसने द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी के कारण प्रत्येक क्षेत्र के सामाजिक परिर्वन के आधार बनाया और मनुष्य के सामने मुँह बाये खड़े मृत्यु भय, सन्त्रास, घुटन और निराशा को रोका। चूँकि इसमें सम्पूर्ण मानव जाति के सन्दर्भों का आंकलन था इसलिए पाश्चात्य प्रभाव भी कविता में पड़ा जिसकी पहली अभिव्यक्ति ‘तार सप्तक’ संकलन में हुई। नई कविता ने युद्ध त्रासदी से पीड़ित मानव-सम्बन्धों को केन्द्र में रखकर छायावाद से नितान्त भिन्नता रखने वाली रचना प्रक्रिया को अपनाया। नई कविता ने छायावाद की वायवीह भाषा के स्थान पर लोकजीवन में प्रचलित बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया। इसका प्रारम्भिक रूप से प्रयोगशील कविता के नाम से आया, बाद में इसी को नई कविता कहा जाने लगा।


प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, नई कविता की क्या विशेषतायें हैं?


डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- नई कविता वैश्विक स्तर पर बदलती हुई मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करने की कविता है। इसमें किसी प्राचीन परम्परा के आग्रह के प्रति दुराग्रह नहीं है परन्तु उसे आँख मूँदकर स्वीकार कर लेने का भाव भी नहीं है। नई कविता पौराणिक बड़प्पन के स्थान पर समाज का सामान्य अकेला और जिजीविषा से भरा मानव व्यक्तित्व केन्द्र में रखा। इसने उपदेश, ज्ञान, इतिहास आदि से अपने को मुक्त करके प्रतीकों के नये प्रयोग, टटके बिम्ब ताजे उपमान और मिथकों के नये सन्दर्भ ग्रहण किये।


प्रेम नंदन- फतेहपुर में नई कविता का प्रारम्भ कब से मानते हैं?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- मैं फतेहपुर सन् 1969 में आया, उस समय साहित्यिक मंचों में प्रायः पारम्परिक कविता और गीत पढ़े जाते थे। नई कविता के हस्ताक्षर के रूप में मेरी पहली मुलाकात श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी से हुई चूँकि वह कई वर्ष के विदेश-भ्रमण के बाद लौटे थे, इसलिए उनको साहित्य के बाह्य परिवेश की जानकारी थी और नई कविता के काव्यात्मक स्वरूप से भी परिचित थे। वे मंचों में शास्त्रीय, पारंपरिक कविता के साथ-साथ अनुरोध करने पर नई कविता भी सुना देते थे। मैंने प्रथम बार उनसे ‘श्वेत  श्यामपट’ शीर्षक से यह कविता सुनी जो मानव-जाति के रंग-भेद  पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया थी। बाद उन्होंने इसी शीर्षक से अपनी नई कविताओं का एक संकलन भी तैयार किया। उनकी एक लम्बी कविता ‘कुरुक्षेत्र से राधा के नाम’ काफी चर्चित हुई जिसमें युद्ध और शान्ति के विषय को, गीता के मिथकीय सन्दर्भ को आधुनिक परिवेश में उद्धृत किया गया है।


प्रेम नंदन- पौराणिक चरित्रों का प्रतीकत्व नई कविता में कैसे आया?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- नई कविता ने पौराणिक चरित्रों को बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के परिवेश में प्रस्तुत किया और उनको अपने यंग के सन्दर्भों और अन्तर्द्वन्दों के अनुसार ढाला। यथा-धर्मवीर भारती का ‘अन्धा युग’, नरेश मेहता का ‘संशय की एक रात’ कुंवर नारायण का ‘आत्मजयी’ श्री कृष्ण कुमार त्रिवेदी की ‘कुरुक्षेत्र से राधा के नाम’ आदि ऐसी रचनायें हैं जिनमें चरित्र तो प्राचीन एवं पौराणिक हैं लेकिन उनका चिन्तन और कर्म, उनके हृदय में उठने वाले अर्न्तद्वन्द नितांत आधुनिक है।

साक्षात्कार देते हुए डा० ओऽमप्रकाश अवस्थी जी (बाएं)  साथ में प्रेम नंदन जी (दायें )


प्रेम नंदन- जनपद में श्री कृष्ण कुमार त्रिवेदी जी के अतिरिक्त नई कविता के और कौन-कौन से प्रमुख हस्ताक्षर है और उनका क्या योगदान है?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- छन्द की पंक्तियाँ तोड़कर और गद्य को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिखना नई कविता नहीं है। नई कविता का कवि भाषा पर इतना अधिक दबाव बनाता है कि जितने शास्त्रीय प्रतिमानों को वह छोड़ देता है, उन सबसे आगे जाने के लिए नई भाषा, नये प्रतीक एवं अभिव्यक्ति के नये रास्तों की खोज करता है। जनपद में भाषा की कसावट एवं उसमें भावात्मक दबाव बनाने वाले कवि कम है। सातवें दशक के बाद धीरेन्द्र विद्यार्थी ने कुछ नई कवितायें लिखीं। नई कविता में इधर एक काव्य संकलन ‘सपने जिन्दा है अभी’ आया है जिसमें भाषा का कच्चापन साफ झलकता है लेकिन कविताओं में परिवर्तित मूल्यों की पकड़ है। इसके अतिरिक्त भी कुछ संकलन आये हैं। इस समय ज्ञानेन्द्र गौरव, प्रेम नंदन, शैलेष गुप्त ‘वीर’, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, वेदप्रकाश मिश्र, आशुतोष वर्मा आदि कई लोग नई कविता लिख रहे हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छप रहे हैं।


प्रेम नंदन- नई कविता का जनपद में आप क्या भविष्य देखते हैं?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- नई कविता का भविष्य कवियों की साधना पर निर्भर करता है। इधर नई कविता लिखने वाले कवियों की संख्या में वृद्धि हुई है यह साहित्य के विकास का एक शुभ लक्षण है यहाँ के कवि जो नई कविता लिख रहे हैं या नई कविता के जो संकलन प्रकाशित हो रहे हैं, उनमें मेहनत और परिमार्जन की आवश्यकता है। यदि ये कवि समाज के बदलते तेवर, मूल्यों की पहचान और भाषा की कसावट पर ध्यान देते रहेंगे तो उनका भविष्य अच्छा रहेगा।


प्रेम नंदन- वर्तमान में नई कविता गद्य बनती जा रही है, क्यों? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- मनुष्य अपने पारम्परिक, भावुकतापूर्ण सन्दर्भों से कटता जा रहा है। उसमें एक वैचारिक स्वार्थ बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। उसका अन्तःकरण को काव्यात्मक है लेकिन अभिव्यक्ति के लिए नई भाषा की खोज नहीं कर पा रहा है, जिसमें वह अपने विचारों को व्यक्त कर सके। वैचारिक दबाव के कारण अभिव्यक्ति का गद्यात्मक होते जाना स्वभाविक है पर कवियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि नई कविता भी कविता है, वह गद्य नहीं है।


प्रेम नंदन- नई कविता के कवियों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे? 

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- नये कवि भाषा के साथ कठिन परिश्रम करें और आज के परिवेश के अर्न्तद्वन्द तथा मनुष्य की कुण्ठा नैराश्य, अकेलेपन को उद्घाटित करने के लिए तदनुरूप भाषा का सृजन करें। सभी कवियों के प्रति मेरी मंगलकामना है कि वे यशस्वी हों।

क्रमशः जारी है ........