22 मार्च 2010

गले में बंधी घंटी की रूनझुन सुन कर समझ में आ जाता था कि.....

 

आन और सान का प्रतीक हाथी अब नहीं दिखता है। कभी गांवों नगरों में बहुतायत में दिखने वाले गजराज गायब हो रहे हैं। कभी शादी विवाहों की शान बनने वाला अब गाहे बगाहे दिखना भी बंद हो रहा है।

एक समय था जब दरवाजे पर बंधा हुआ हाथी हैसियत का जीता जागता नमूना होता था। जिसके पास यह भारी भरकम जानवर होता था उसकी रहीशियत की चर्चा क्षेत्र में होती थी। हाथी का होना अपने आप में एक पहचान होती थी।
एक वक्त था जब हाथी गांवों में आता तो गले में बंधी घंटी की रूनझुन सुन कर समझ में आ जाता था कि हाथी आया है और फिर उसके पीछे ताली बजाते शोर मचाते बच्चों का हुजूम लग जाता था। और वह वक्त भी दूर चला गया कि जब गांवों की गलियों से गुजर रहे हाथी की चिग्घाड़ सुनने के लिये लोग एक-एक टोकरी गुड़ खिला देते थे। पर अब यह सब बीते वक्त की बातें हुई जा रही हैं।  
हाथी पालना कभी क्षेत्र के कुछ लोगों के लिये गर्व की बात हुआ करती थी पर अब ऐसा नहीं है। इतिहास की इबारत पढ़ने पर पता चलता है कि शान का साथी हाथी कालांतर में उसकी देखभाल में आने वाले भारी भरकम खर्च के चलते लोगों का शौक मंद पड़ गया।  हाथी पालने के शौकीन कई लोग रहे हैं जिनके यहां पीढ़ी दर पीढ़ी गजपालन होता रहा है। हाथी पालने वाले को नम्बरदार कह पुकारा जाता था। 

4 टिप्‍पणियां:
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  1. उत्तर प्रदेश के सारे हाथी लखनऊ के पार्कों में प्रस्तरीकृत कर दिए गए हैं।
    हाथी पालना अब आर्थिक और राजनैतिक दोनों शक्तियों का प्रतीक बन गया है। वैसे भी दस दस इनोवा, स्कॉर्पियो वगैरह की फ्लीट रखने वाले किस नम्बरदार से कम हैं?

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