13 सित॰ 2008

लक्ष्मण का रोल भी करते थे कन्हैया लाल नंदन जी!

 

पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है की कन्हैया लाल जी फतेहपुर की माटी के लाल हैं , इसी कड़ी में इस लिंक के कुछ हिस्से प्रस्तुत हैंपूरा पढने के लिए यंहा क्लिक करेंपेश है उन्ही के शब्दों में उनके संस्मरण..........

"असल में संगीत मेरे जीवन का एक ऐसा अंग रहा है जिसमें मैंने पाया कि मन कितना ही दुखी क्यों न हो, परेशानियाँ कितनी ही घनी क्यों न हों, अगर मैं संगीत की दुनिया में चला जाता हूँ, तो मैं सभी कष्ट-तकलीफें भूल जाता हूँ। ईश्वर की कृपा थी कि मुझे स्वर भी अच्छा मिला था और मेरे गाँव का वातावरण भी कुछ सांस्कृतिक था, सो मैं संगीत की महफिलों में ज्यादा ही रुचि लेने लगा। महफिलें तो मैं यों ही कुछ अतिरिक्त मोह में कह रहा हूँ असल में ये सिर्फ बैठके थीं।"

"शाम को खाने-पीने के बाद किसी की बैठक में दस-पाँच लोगों की एक टुकड़ी जमा हो जाती। उन्हीं में से कोई ढोलक बजाने वाला, कोई गाने वाला, कोई दंडताल खटकाने वाला और कोई मंजीरा खनकाने वाला होता। इसी को हम संगीत की 'महफिल' कहते। चूँकि सारे गाँव का वातावरण ही ऐसा था, इसलिए अधिकांश लोग श्रोता के रूप में उपस्थित हो जाते। ये महफिलें लगभग आधी-आधी रात तक चलतीं। धीरे-धीरे गाँव में यह मशहूर हो गया कि यदुनंदन तिवारी का लड़का गाता बहुत अच्छा है और तबला भी बढ़िया बजाता है।"

"मेरी यह शोहरत पढ़ाई में अच्छा होने के साथ-साथ मुझे एक अतिरिक्त प्रशंसा देती चली गई और एक दिन बद्रीविशाल बाबा (पंडित बद्रीविशाल द्विवेदी) मेरे बाबा के पास यह इजाजत लेने पहुँच गए कि वे मुझे धनुष-यज्ञ लीला में लक्ष्मण का पार्ट देना चाहते हैं। मेरे बाबा को इस पर कोई ऐतराज़ नहीं दिखा और उन्होंने सहर्ष इजाजत दे दी। "

"मैं लक्ष्मण के पार्ट का नाम सुनकर अंदर ही अंदर इसलिए खुश होने लगा कि चलो अब सीता का पार्ट नहीं करना पड़ेगा। जाने क्यों लड़का होकर लड़की की भूमिका अदा करना मुझे रुचिकर नहीं लगता था। सुनने में ही मुझे अजीब-सा लगता था। और अगर मेरे गाँव की रामलीला कुछ सालों के लिए बंद न हो गई होती तो शायद मुझे भी धनुष-यज्ञ लीला में सखी सीता की भूमिका करनी पड़ती, तब कहीं जाकर लक्ष्मण, राम, और परशुराम की भूमिकाओं का मौका मिलता। वह तो हुआ यह कि गाँव के आपसी झगड़ों और खींचतान के कारण धनुष-यज्ञ का आयोजन बंद कर दिया गया और तब तक मैं सीता का पार्ट अदा करने की उम्र से आगे निकल गया। सो, नारी-पात्र बनने से मुक्ति मिली और मैं सीधे लक्ष्मणजी बनकर धनुष-यज्ञ में प्रविष्ट हो गया। "

"बद्रीविशाल बाबा भी हमारे गाँव की अजीब शख्सियत थे। सुना था कि वे बहुत पहले बर्मा में रहे थे, जो अब म्यांमार हो गया है। वहाँ से लौटे तो गाँव में सांस्कृतिकता फैलाने की दृष्टि से धनुष-यज्ञ लीला का प्रचलन शुरू किया। हो सकता है कि यह लीला बद्रीविशाल बाबा के पहले से भी वहाँ होती रही हो, लेकिन मैंने उन्हीं के कमरे से इसका सूत्रपात होते पाया। उनके यहाँ एक कमरा धनुष-यज्ञ के साज-सामान से पटा रहता था। कुछ कपड़े, वेशभूषाएँ, कागज़ की तिदवारियाँ, खम्भे बने हुए रखे रहते थे। हर साल धनुष-यज्ञ होने के समय उन्हें झाड़ा-पोंछा और चमकाया जाता था और लकड़ी के खम्भे गाड़-गाड़कर उन पर तिदवारियाँ जड़ते हुए पूरे मैदान को एक उत्सव-स्थल का रूप दे दिया जाता था। रामजन्म के समय यह उत्सव-स्थल अयोध्या बन जाता था और सीता स्वयंवर अथवा धनुष-यज्ञ के समय वही स्थल जनकपुरी बन जाता था। "

"बद्रीविशाल बाबा के पास एक पोथी थी जिसमें धनुष-यज्ञ की पूरी लीला में भाग लेने वाले सभी चरित्रों के पूरे संवाद लिखे होते थे। पूरी लीला का सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग होता था - धनुष टूटने वाले दिन लक्ष्मण-परशुराम संवाद। "

"परशुराम की भूमिका किसी अच्छे हृष्ट-पुष्ट दिखने वाले ब्राह्मण को दी जाती थी। बाबा के यहाँ हफ्तों पहले से धनुष-यज्ञ की रिहर्सल हुआ करती थी जिसमें भावाभिव्यक्ति से लेकर संवाद तक की समूची भूमिका की रोज समीक्षा भी होती थी। "

"बद्रीविशाल बाबा यह काम एक हेडमास्टर की तरह करते थे और अनुशासन के साथ नियमितता से उसका पालन कराते थे। मेरे साथ राम की भूमिका में होते थे गिरिजाशंकर त्रिपाठी। बंदीजन की भूमिका में उनके बड़े भाई कालीशंकर त्रिपाठी और परशुराम की भूमिका में उनके सबसे बड़े भाई बाबूलाल त्रिपाठी।"

"इलाके में सबसे अच्छा परशुराम वह माना जाता था जो शिव-धनुष टूटने का आक्रोश व्यक्त करते समय उछल-उछलकर तख्त तोड़ देता था।"


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