13 सित॰ 2008

गणेशशंकर विद्यार्थी संचयन का हुआ प्रकाशन

 

गणेशशंकर विद्यार्थी हमारे फतेहपुर जनपद के हथगाम क्षेत्र के प्रसिद्द व्यक्तित्व थेउनसे सम्बंधित गणेश शंकर विद्यार्थी संचयन का प्रकाशन साहित्य अकादमी द्वारा किया गया था
आइये उस पुस्तक से कुछ महत्वपूर्ण अंशों को देखते हैंपूरी जानकारी के लिए यंहा क्लिक करें

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


गणेशशंकर विद्यार्थी (1890-1931) बींसवीं सदी के सबसे गतिशील राष्ट्रीय व्यक्तिवों में थे। भारत के समूचे राष्ट्रीय एंव सांस्कृतिक आंदोलन के इतिहास में उन जैसा दूसरा नहीं हुआ। हिन्दी प्रदेश के तो वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जिनके मानस में आज़ादी के बाद के देश समाज के समृद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का एक स्पष्ट खाका था और जो हिन्दी जाति के प्रबल पक्षधर थे। हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रकारिता के भगीरथ तो वह थे ही, अपने समय की हिन्दी की साहित्य धारा को समृद्ध करने वाले अकेले राष्ट्रीय व्यक्तित्व भी थे।

गणेश जी का जन्म 26 अक्तूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइसा मुहल्ले में नाना के घर हुआ था। उनके पिता बाबू जयनारायण श्रीवासस्तव फतेहपुर जिले के हथगाँव के रहने वाले थे और ग्वालियर रियासत के शिक्षा विभाग के अध्यापकी करते थे। उनकी माँ का नाम श्रीमती गोमती देवी था। जब वह माँ के गर्भ में थे, तो उनकी नानी श्रीमती गंगा देवी ने एक सपना देखा कि वे अपनी पुत्री को गणेशजी की एक मूर्ति उपहारस्वरूप दे रही हैं। उसी स्वप्न के आधार पर तय पाया गया कि होने वाली संतान का नाम, अगर पुत्र हुआ तो गणेश और कन्या हुई तो गणेशी रखा जायेगा। गणेशशंकर विद्यार्थी के नामकरण की पृष्ठभूमि यही है। विद्यार्थी शब्द उनके नाम के साथ इलाहाबाद में एफ.ए. की पढ़ाई करने के दौरान पंडित सुन्दरलाल की प्रेरणा से जुड़ा और आजीवन जुड़ा रहा। उनका मानना था कि मनुष्य जीवन-भर कुछ-न-कुछ लगातार सीखता रहता है, अतः वह आजीवन विद्यार्थी ही होता है।



गणेशशंकर विद्यार्थी की वैचारिक अग्निदीक्षा लोकमान्य तिलक के विचार-लोक में हुई थी। शब्द एंव भाषा के संस्कार उन्होंने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्राप्त किये थे। 1913 में उनके उद्योग से निकला साप्ताहिक ‘प्रताप’ अख़बार एक ओर जहाँ हिन्दी का पहला सप्राण राष्ट्रीय पत्र सिद्ध हुआ, वहीं साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उदित हो रही नई प्रतिभाओं का प्रेरक मंच भी वह बना।

‘प्रताप’ के उद्योग से ही तिलक और गाँधी के साथ- साथ लेनिन, बिस्मिल-अशफ़ाक़ और भगतसिंह के औचित्य और तर्क हिन्दी भाषी समाज को सुलभ हो पाये। प्रेमचन्द्र, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, ‘त्रिशूल’ माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के रचनात्मक व्यक्तियों को सँवारने में विद्यार्थी जी ने प्रमुख कारक की भूमिका अदा की। पारसी शैली के नाटककार राधेश्याम कथावाचक और लोकनाट्य रूप नौटंकी के प्रवर्तक श्रीकृष्ण पहलवान को प्रेरित-प्रोत्साहित करने का महत्त्व भी वे समझते थे। ‘प्रताप’ पर ब्रिटिश हुकूमत का प्रहार इसलिए हुआ कि श्री विद्यार्थी देसी जमींदारों की निरंकुशता के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द कर रहे थे। चंपारन (बिहार) के निलहे अंग्रेज जमींदारों द्वारा स्थानीय किसानों के शोषण और रायबरेली के निरीह किसानों पर वहाँ के एक ताल्लुकेदार द्वारा गोली चलवाने की लोमहर्षक ख़बरें ‘प्रताप’ में छपी थीं, जिसके लिए उन्हें छः महीने के लिए जेल जाना पड़ा। दूसरे दशक के अन्तिम वर्षों में देश में मज़दूर आन्दोलन का सूत्रपात भी उन्हींने ही किया था।

धार्मिक मदांधता से भी गणेशजी 1915 में ही टक्कर लेने लगे थे। ठीक कबीर के लहज़े में दोनों धर्मों की कट्टरता की तीखी आचोलना करते हुए उन्होंने कहा: ‘‘कुछ लोग ‘हिन्दू राष्ट्र’-‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं हो सकता, इसी शैली में उन्होंने मुसलमानों को भी लक्ष्य करके कहा : वे लोग भी इसी प्रकार की भूल कर रहे हैं जो टर्की या काबुल मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं, क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं...उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और उनके मर्सिये इसी देश में गाये जायेंगे।’’ (राष्ट्रीयता : 21 जून 1915) आगे चलकर धर्म के प्रश्न राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के नजरिये की आलोचना करने में भी वह नहीं झिझके। कहा : ‘‘वह दिन निसंदेह अत्यंत बुरा था, जिस दिन स्वाधीनता के क्षेत्र में ख़िलाफ़त, मुल्ला-मौलवियों और धर्माचायों को स्थान दिया जाना आवश्यक समझा गया...देश की स्वाधीनता के संग्राम ही ने मौलाना अब्दुल बारी और शंकराचार्य को देश के सामने दूसरे रूप में पेश किया, उन्हें अधिक शक्तिशाली बना दिया और...इस समय हमारे हाथों ही से बढ़ायी उनकी और इनके-से लोगों की शक्तियाँ हमारी जड़ उखाड़ने और देश में मज़हबी पागलपन प्रपंच और उत्पात का राज्य स्थापित कर रही हैं।’’


मेरा आग्रह है की आप जरूर से जरूर इस लिंक को पूरा पढ़ेअपने विचार से भी हमें अवगत कराएँ

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