11 नव॰ 2008

मात्र सोलह विभूतियां ही हमारे बीच आजादी के गवाह के रूप में शेष

 

देश की आजादी के लिये हमारे बुजुर्गो ने अंग्रेजों की जुल्म-ज्यादती का मुकाबला कर स्वतंत्रता के बीच जीने का अधिकार दिया। आज हमारे बीच ऐसे महान व्यक्तिव अब गिनी-चुनी संख्या में ही बचे हैं। जरूरत इस बात की है कि समाज राष्ट्र के इन अगुवाकारों के प्रति कितना समर्पित और श्रद्धावत है। जनपद के साढ़े चार सौ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से अब मात्र सोलह विभूतियां ही हमारे बीच आजादी के गवाह के रूप में हैं। पीड़ा इस बात की है कि पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को माल्यार्पण कर सम्मानित करने के अलावा पूरे साल प्रशासन इनकी कोई सुधि नहीं ले रहा।


प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजादी तक देश की स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले महान सपूतों की जिले में एक लंबी श्रंखला है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में जोधा सिंह अटैया, ठाकुर दरियाव सिंह, डिप्टी कलेक्टर हिकमतउल्ला, बाबा गयादीन दुबे ऐसे क्रांतिकारी रहे जिनके सामने अंग्रेजों की फौज भी बौनी पड़ गयी और वह हंसते-हंसते मातृभूमि की रक्षा के लिये शहीद हो गये। स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में जिले में साढ़े आठ सौ से अधिक लोग जेल गये। आजादी के बाद सूचीबद्ध हुए साढ़े चार सौ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से इकसठ वर्ष के सफर के बाद अब मात्र सोलह सेनानी ही हमारे बीच बचे हैं। मातृभूमि की रक्षा की सौगंध खाकर घर परिवार को त्यागकर देश के लिये मर मिटने का संकल्प लेकर यह दीवाने निकल पड़े थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में अल्लीपुर भादर के छोटा, जहानपुर बिंदकी के श्यामलाल, पैगंबरपुर बिंदकी के विष्णुदत्त पांडेय, करचलपुर के प्रह्लाद सिंह, अकबरपुर नसीरपुर के शिवलाल, मुत्तौर के ओंकारनाथ, शाखा के इंद्रपाल सिंह, पल्टू का पुरवा के मंगली, बिजौली के शिवनाथ उर्फ विश्वनाथ, थरियांव के रामगोपाल सिंह, गुनीर के सुरेन्द्र बहादुर सिंह, रक्षपालपुर के ईश्वर चन्द्र, कटरा बिंदकी के उमानाथ, जहानाबाद के रामकिशोर गुप्ता, कल्यानपुर के विश्वनाथ, दुगरेई के रामसनेही सिंह आज हमारे बीच हैं, लेकिन देश और प्रदेश की राजनीति से सेनानियों को पीड़ा है। वह कहते हैं कि सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत में रामराज का सपना जो गांधी जी ने देखा था, भ्रष्टाचार के कारण नहीं आ पाया है। नब्बे वर्षीय प्रह्लाद पहले के नेताओं के चरित्र और देश प्रेम को याद कर रुंधे गले से कहते हैं कि अब तो पैसा ही धर्म और ईमान है। नैतिकता और मानवता बची ही नहीं। सेनानी की पत्‍ि‌नयों की संख्या लगभग बत्तीस बतायी जा रही है। सेनानी परिवारों केलोगों का कहना है कि हमें फक्र है कि हमारे बुजुर्ग देश के लिये कुछ किया, लेकिन इस बात का कष्ट होता है कि समाज व प्रशासन उनके बारे में कुछ नहीं सोच रहा है। केवल पेंशन देना ही सबकुछ नहीं है। जो सम्मान मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को कलेक्ट्रेट बुलाकर माल्यार्पण कर सम्मान करने के अलावा पूरे साल उन्हें नहीं पूछा जाता है। यहां तक कि बीमार होने पर उन्हें किसी तरह से अस्पताल जब लाया जाता है तब इलाज किया जाता है। बुलाने पर भी डाक्टर घर नहीं पहुंचते हैं।

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